शनिवार, 20 दिसंबर 2014

बूढ़ा बचपन

दुख में सुख खोजना
अम्मा ने सिखा दिया था ,
बचपन और पचपन की उम्र का
फासला मिटा दिया था ।

अम्मा ने आहिस्ता से बो दिए थे
मुझमें प्रौढ़ता के बीज कि
लड़कियों का जवान होना
अच्छी बात नहीं ,
बुरी नजर से देखा जाता है
जवान हँसती लड़कियों को 

यकबयक डर जाती हूँ
जवान लड़कियो को देख कर
हँसी की आवाज से ,
आज बच्चियों को
खिलखिलाता देख
अम्मा तुम बहुत याद आ रही हो...

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

माँ

पहली बार जब
उसने मुझे माँ कहा
मै वारी गई ,
उसकी तोतली जबान पर ..
वो बड़ा हो गया है ,
मम्मा से माँ कहना
माँ का सम्मान करना
सीख गया है वो ,
पर सहम जाती हूँ मैं
जब माँ शब्द उसकी
जुबान पर आता है ..
अब माँ शब्द के
विविध प्रयोग भी
सीख चुका है वो.....

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

ऊब

बारहा तारी होती है मुझपे
सब मुसल्सल होने की ऊब,
यकायक जी उठती है ऊब
जब थोड़ा सा मर जाती हूँ मैं ,
अंतस में पसरी
घर , किताबों , तुमसे होकर
फोन , लैपटाप ,
टी.वी से गुजर कर
नमी बन फैल
जाती है अंदर..
तवील रातों की नम ऊब
गुनगुनी धूप की प्यास जैसी
बढ़ती रहती है ,
एक बार फिर से
मेरे जी उठने के इंतजार में ....

मंगलवार, 4 नवंबर 2014

अबोध

अबोधता वरदान है
न जानना जानने से बेहतर है
जानना छीन लेता है सहजता
और देता है क्षमता
आँखों को बुद्धि को
दिखने लगते हैं कपड़ों
में लिपटे नग्न लोग ...
दिखती है मुस्कान के
पीछे की विद्रूपता
दिखती है सहयोग
के पीछे साजिश ...
मैं अबोध ही भली... 

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै ..

सुखों के ढेर पर रोता
कितना उदास वो शख्स ,
सारे सुख खो बैठेे
हैं अपनी चमक ,
नए सुखों की तलाश में
धो माँज कर
सुखा रहा है पुराने सुख
और पाल रहा था
नवीन सुख के
नन्हे भ्रूण अंतस
के धरातल पर ..
पिसासा
यूं ही अंतहीन बन
नवीनता की चाह में 
पहुँची है एक
अनंत श्मशान पर
जहां पुराने सुखों
की चिताएँ जल रही हैं.....

मंगलवार, 2 सितंबर 2014

दुख और पहाड़

दुखों के पहाड़ होते हैं
सुख हमेशा राई की तरह
हम खोदते हैं पहाड़
तरीके ढूढ़ते हैं
रास्ते बनाने के ,
थकते हैं ,हाँफते हैं
और सुख ...
भरमाता है
सुस्ताने भर
की देर के लिए आता है ,
फिर से पहाड़ खोदने का
हौसला देने ,
जिंदगी राई और पहाड़ का
खेल है सारा ....

शनिवार, 16 अगस्त 2014

दो कौड़ी का इंसान

वक्त के साथ
मिजाज बदल गए
चार कौड़ी कमाने वालों
के अंदाज बदल गए
कौड़ियो के भाव बिकने वाले
आज कौड़ियों की दौड़
से परे हैं ...
अफसोस कि अब
दो कौड़ी की
भी कीमत न रही
कौड़ियों की
जो कभी इंसानों के
मोल तय करती थी ..

अहम..

एक पति का अहम
बड़ा होता है एक पुरूष
के अहम से ,
परनारी की
मदद करता
पुरुष ,
पति बन कर
पथ का रोड़ा
बन जाता है .
नही चाहता
कि पत्नी आगे निकले
उससे
और वो खिसियाया सा सुने
कि प्रतिभाशाली हैं पत्नी आपकी ,
दिखा के पुरुषत्व का अहम घोंट देता है गला प्रतिभा का
और अट्टहास करता है
अपने पुरूष होने पर ,
नारी होने की सजा पाती
नारी कुंठित शोषित
पति के अहम को पालती
पोसती
मार डालती है अपने भीतर की
महात्वाकांक्षी नारी को.
और दुलारते हुए अपनी बेटी
को समझाती है कि जीना है तो
खड़ी हो अपने पैरों पर ,
ठुकरा दो पुरुष का संरक्षण ,
क्योंकि
जिन्दा रहना और जिन्दगी जीना
दो अलग बातें हैं ...