बुधवार, 9 दिसंबर 2015

बोनसाई

वो फैला रही थी शाखाएं
हम धार धर रहे थे ,
वो नाप रही थी ऊँचाई
हम कोपलें कतर रहे थे ,
वो उन्मुक्त हो कर फैलाना
चाह रही थी छाँव चारो ओर
और हम उसे काट छाँट और
मोड़ कर बोनसाई बना रहे थे ...

बुधवार, 14 अक्तूबर 2015

गुण ...

तुम्हारी नजर मे भले ही गुण हो
चाँद का शीतल होना
पर छटपटाता है वो
दग्धता के लिए ..
सूर्य होना चाहता है शीतल
और पृथ्वी बरसाना चाहती है जल
आकाश ढूढ़ रहा है उर्वरता को
कि उसमें लहलहाएं फसलें
पक्षी तैरने को छटपटा रहे हैं
जलचर पाना चाहते हैं नभ
हाँ कतई जरूरी नहीं
कि जिसका गुण
प्रभावित करे तुम्हें
वह खुद से खुश हो ..
अक्सर गुण बन जाते है
सबसे बड़ा अवगुण ..
यहां सब उलट है
ये दुनिया अपने होने से
कब खुश थी
कब खुश है
कब खुश होगी ...

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

मरद

वो कोसता रहा
पल पल
अपनी औरत को
जिसने उसकी
बेटियों को बहस
करना सिखा दिया था ,
औरत की अस्मिता
समझा दी थी ,
गलत बातों का
विरोध करना बता दिया था ,
और लड़का उसे देख
औरतों पर हाथ उठाना
चिल्लाना सीख गया ,
इस मर्दानगी पर नाज
करता रहा वो जीवन भर ,
गबरू मरद था आखिर वो
बस
इंसान नही था ...

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

सपनें


हाशिए पर रखी गई
हिम्मत और हताशा ,
पल पल गुजरता वक्त
सलीब और सैलाबों से लबरेज़ ,
पथरीलें रास्तों की चुभन
में रिसते घावों को समेट ,
आँखों को नम करते
अश्कों की जमीं पर ,
रोज रात बो देती है एक सपना,
जाने कहाँ से लाती है वो जिजीविषा, जिस्म पर पड़े नीले निशान
उसे नहीं बैठने देते है चुप ,
वो हँसती है ठठा के
उस दिन के लिए ,
जिस दिन लहलहाएँगे
उसके बोए सपने ..

हाँ ..तुम्हे डरना ही होगा अब ...

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

बूढ़ा बचपन

दुख में सुख खोजना
अम्मा ने सिखा दिया था ,
बचपन और पचपन की उम्र का
फासला मिटा दिया था ।

अम्मा ने आहिस्ता से बो दिए थे
मुझमें प्रौढ़ता के बीज कि
लड़कियों का जवान होना
अच्छी बात नहीं ,
बुरी नजर से देखा जाता है
जवान हँसती लड़कियों को 

यकबयक डर जाती हूँ
जवान लड़कियो को देख कर
हँसी की आवाज से ,
आज बच्चियों को
खिलखिलाता देख
अम्मा तुम बहुत याद आ रही हो...

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

माँ

पहली बार जब
उसने मुझे माँ कहा
मै वारी गई ,
उसकी तोतली जबान पर ..
वो बड़ा हो गया है ,
मम्मा से माँ कहना
माँ का सम्मान करना
सीख गया है वो ,
पर सहम जाती हूँ मैं
जब माँ शब्द उसकी
जुबान पर आता है ..
अब माँ शब्द के
विविध प्रयोग भी
सीख चुका है वो.....

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

ऊब

बारहा तारी होती है मुझपे
सब मुसल्सल होने की ऊब,
यकायक जी उठती है ऊब
जब थोड़ा सा मर जाती हूँ मैं ,
अंतस में पसरी
घर , किताबों , तुमसे होकर
फोन , लैपटाप ,
टी.वी से गुजर कर
नमी बन फैल
जाती है अंदर..
तवील रातों की नम ऊब
गुनगुनी धूप की प्यास जैसी
बढ़ती रहती है ,
एक बार फिर से
मेरे जी उठने के इंतजार में ....

मंगलवार, 4 नवंबर 2014

अबोध

अबोधता वरदान है
न जानना जानने से बेहतर है
जानना छीन लेता है सहजता
और देता है क्षमता
आँखों को बुद्धि को
दिखने लगते हैं कपड़ों
में लिपटे नग्न लोग ...
दिखती है मुस्कान के
पीछे की विद्रूपता
दिखती है सहयोग
के पीछे साजिश ...
मैं अबोध ही भली... 

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै ..

सुखों के ढेर पर रोता
कितना उदास वो शख्स ,
सारे सुख खो बैठेे
हैं अपनी चमक ,
नए सुखों की तलाश में
धो माँज कर
सुखा रहा है पुराने सुख
और पाल रहा था
नवीन सुख के
नन्हे भ्रूण अंतस
के धरातल पर ..
पिसासा
यूं ही अंतहीन बन
नवीनता की चाह में 
पहुँची है एक
अनंत श्मशान पर
जहां पुराने सुखों
की चिताएँ जल रही हैं.....

मंगलवार, 2 सितंबर 2014

दुख और पहाड़

दुखों के पहाड़ होते हैं
सुख हमेशा राई की तरह
हम खोदते हैं पहाड़
तरीके ढूढ़ते हैं
रास्ते बनाने के ,
थकते हैं ,हाँफते हैं
और सुख ...
भरमाता है
सुस्ताने भर
की देर के लिए आता है ,
फिर से पहाड़ खोदने का
हौसला देने ,
जिंदगी राई और पहाड़ का
खेल है सारा ....

शनिवार, 16 अगस्त 2014

दो कौड़ी का इंसान

वक्त के साथ
मिजाज बदल गए
चार कौड़ी कमाने वालों
के अंदाज बदल गए
कौड़ियो के भाव बिकने वाले
आज कौड़ियों की दौड़
से परे हैं ...
अफसोस कि अब
दो कौड़ी की
भी कीमत न रही
कौड़ियों की
जो कभी इंसानों के
मोल तय करती थी ..

अहम..

एक पति का अहम
बड़ा होता है एक पुरूष
के अहम से ,
परनारी की
मदद करता
पुरुष ,
पति बन कर
पथ का रोड़ा
बन जाता है .
नही चाहता
कि पत्नी आगे निकले
उससे
और वो खिसियाया सा सुने
कि प्रतिभाशाली हैं पत्नी आपकी ,
दिखा के पुरुषत्व का अहम घोंट देता है गला प्रतिभा का
और अट्टहास करता है
अपने पुरूष होने पर ,
नारी होने की सजा पाती
नारी कुंठित शोषित
पति के अहम को पालती
पोसती
मार डालती है अपने भीतर की
महात्वाकांक्षी नारी को.
और दुलारते हुए अपनी बेटी
को समझाती है कि जीना है तो
खड़ी हो अपने पैरों पर ,
ठुकरा दो पुरुष का संरक्षण ,
क्योंकि
जिन्दा रहना और जिन्दगी जीना
दो अलग बातें हैं ...

शनिवार, 31 अगस्त 2013

वक्त सबका बदलता है

अहम का बिरवा
फूला फला है खूब ,
अब तो फूल भी आ
गए है नफरतों के ,
और पत्तियां
बिलकुल काली
कलुषित हृदय जैसी .
तन गया है बिरवा
आँधियां तोड़ न दे  ,
थोड़ी लचक सीख लो
वर्ना जड़ से उखड़ने मे
वक्त नहीं लगता है .
सुना है
वक्त सबका बदलता है...

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

जज्बात

बरसे है फिर ये आसमां से जज़्बात क्या करें,
थे राह में और हो गयी बरसात क्या करें।

मंदिर में हुई सुबह हो के मैखाने की शाम
आते है बस उनके ही ख्यालात क्या करें .

उलझे रहे शबे फुर्कत में जहाँ से ,
बेसबब तन्हाई की ये रात क्या करें .

न उम्मीद कोई ,ना ही आरजू कोई,
ख्वाबों में उनसे मुलाकात क्या करें

बस तुम्हारे लिए

"बस तुम्हारे लिए "
काती है
एक चादर दर्द की ,
जिस्म के रेशों से
बने सूत  को
लहू के रंग से
लाल किया है ,
भावनाओं के फूलों की
अश्को से कढ़ाई की है  ,
जड़े हैं कलेजे के टुकड़ो में
प्रेम के मोती .
सजाई है वर्षों के
इंतजार का गोटा
लगा कर
"बस तुम्हारे लिए "

नीलकंठ

मिलने और बिछड़ने
के बीच का एक दिन
कुछ पलों का साथ
और चुरा लाई मैं तुमसे
ही तुम्हारा स्पर्श ,भाव
मुस्कान और एहसास  ,
बदले में दे आई हूं
अपनी तकलीफों का जहर ,
पीना मत वर्ना
जीना मुश्किल हो जाएगा ,
धारण कर लेना कंठ में
शिव की तरह ...

बदलते रंग

तुम रूठते गर
मना लेती,
तुम डाँटते
मै सुन लेती
पर
तुम बदल गए
मै बदल न पाई ,
सिखा देते
ये हुनर भी ,
तो आज मै
भी बदल जाती ,
तुम्हारे न होने का
दर्द धमनियों से शिराओं
तक ना दौड़ता रहता ,
दिल के फूलने
पचकने में यूँ
तकलीफ ना होती ,
सिखा देते जो
मुझे भी रंग बदलना ...

गलतफहमी

सुनी है न तुमने
साँप और नेवले
वाली कहानी ,
गलतफहमियों का
अंत हमेशा
अफसोस पर
आकर खत्म होता है
और अफसोस का
कभी अंत नही होता
लाख सर पटका उसने
नेवला मर चुका था ,
मरे हुए रिश्ते
अफसोस
से जी न उठेंगे ,
जिंदा रहेगा
झूठा अहंकार ,
टूटा स्वाभिमान ,
खोखला वजूद
और न भर सकने
वाला खालीपन ....

आतिशे मोहब्बत

दर्द ये अब हद से गुजर क्य़ूँ नही जाता ,
दिल धड़कता है कमबख्त,रुक क्यूँ नहीं जाता ,

लाशों पर बेअसर होंगे उसके तीर
वो ये बात क्यो कर समझ नही जाता,

मोहब्बतों का सिला मिला है नफरतों से यहाँ,
देख कर हश्र मेरा वो संभल क्यों नही जाता ,

मोम का घर मेरा और ये आतिश ए मोहब्बत ,
पिघल रहा है सब ,क्यू जल नही जाता ...

हाँ लालची हूं मैं ..

हाँ समझ गई हूँ मै
कहा भी और अनकहा भी
कह भी कहाँ पाते हो तुम
कहने से पहले ही सुन लेती हूँ ,
एहसास  की दौलतो का
खजाना समेटे बैठी हूँ,
जो जज्बातो के तोहफे
दिए हैं तुमने ,
और पाना चाहती हूं
हाँ , ये बात मानती हूं
कि लालची हूँ  मैं...

पपीहे

पूछते हो अक्सर ना ,
मै क्यूँ
मुझे ही क्यूँ
चाहा तुमने
छोड़ सारी कायनात को ...
सोचती हूं कि
क्या स्वाति नक्षत्र में
बरसी बूँदे  भी
पूछती है पपीहे से
कि मैं क्यो,
मुझी से क्यो
बुझती है
तुम्हारी प्यास ,
मीठे जल स्रोत क्यू
लुभाते नही तुम्हे पपीहे ,

समझ गए ना अब

तुम क्यों
तुम्ही क्यो ,
क्योंकि तुम ही हो
स्वाति नक्षत्र मे
बरसा जल ,
जिसमे अटके
प्राण मेरे ,
तुम हो
तुम्ही हो
जीवन का
सार मेरे ......... े

प्रेम

दोनों प्रेम में थे
तड़प में थे
गुंथे थे दिल
एक दूजे की
चाहत में .
दुखी थे
मायूस थे
त्रस्त थे
जानते थे
जो एक हुए
तो मौत मिलेगी
फिर भी वो पगला
पाना चाहता
था उसे
कि छोटी ही सही
जी लेना चाहता था
अपनी जिंदगी,
और वो छोड़ देना
चाहती है
उसका साथ
ताकि सलामत रह सके
उस दीवाने की जिन्दगी .

पीड़ा का एक बीज

पीड़ा के एक
बीज सी
याद तुम्हारी ,
जरा सी अश्कों
की नमी पाई जो
फूल कर अंकुरित
हो गया है ,
आओ,
आकर पहचान करो
ये पौधा प्रेम का है
या दर्द का ,
बोया तो प्रेम था ,
पर न मालूम था
दर्द हमेशा प्रेम के
आवरण में छुप कर
आता है
खारे आँसुओं के साथ,
पानी की तरह
भाप बनकर
उड़ जाता है प्रेम
और नमक बन कर
रह जाता है साथ
दर्द हमेशा के लिए ....

तुम

साथ सारे रंजो गम के मुस्कराती हूँ मैं,
तुम तक आते ही पिघल जाती हूं मैं,

जानती हूं ये सफर नहीं आसाँ इतना ,
तुम बहलाते हो तो बहल जाती हूँ मै.

कुम्हलाई सी रहती हूँ जुदा होकर , नजर पड़ते ही तुम्हारी खिल जाती हूं मै ..
मेरे बस मेरे हो तुम ये जानकर भी ,
पाने को तुम्हे मचल जाती हूं मैं ..

जाने कौन सा रूप मेरा बाँध ले तुमको ,
ये सोच रोज नए रूप में ढल जाती हूँ मैं...

बुधवार, 20 मार्च 2013

बस तुमसे है....


क्या उपमेय
क्या उपमान
नहीं जानती मैं
कैसे आता है 
कविता में सौन्दर्य
नहीं जानती मैं .
अलंकारो से 
अपरिचित
मेरे शब्द बस
तुम्हारे प्रेम 
से अलंकृत है...
मेरे शब्दों का सौन्दर्य
बस तुमसे है..
राग ,नेह ,दर्द
बस तुमसे है....

तुम क्यो याद आते हो ....


तुमने तो कभी 
जीव विज्ञान
नहीं पढ़ा और
काले जादू 
से भी तो
डरते थे तुम 
फिर कैसे 
काट ले गए 
तुम मेरे कलेजे 
का एक टुकड़ा .
आज भी दर्द से
कराहता है
मेरा कलेजा
जब भी याद
आते हो तुम,
तुम क्यो
याद आते हो ....

मंगलवार, 8 जनवरी 2013

रिश्तों की कब्र

आओ चलो मर चुके रिश्तों को दफना दें,
कभी साथ साथ, साथ था,
सौंदर्य मधुर गात था
हांथों में हाथ था
आज हम विलम्ब से ,
विदाई गीत गुनगुना दें,
आओ चलो मर चुके........
भावना भी सुप्त हुईं,
बातें खूब गुप्त हुईं,
चुगलियाँ भी मुफ्त हुईं,
हाँथ अब तुम छोड़ चले ;
किसे हम उलाहना दें,
आओ चलो मर चुके......
नेह डोर टूट गई,
बचपन की यादें भी,
दूर कहीं छूट गईं
तुम तो हमें भूल चुके,
हम भी तुम्हे  बिसरा दें,
आओ चलो मर चुके......

बुधवार, 8 अगस्त 2012

व्याख्या


कुछ साथ
आदत
बन जाते है,
और बदल देते है
रास्ते ..
बन कर ख्वाब
बिछ जाते है ,
आँखों की नमी में,
और दे जाते है
एक सुनहरी दुनियां,
जहाँ सम्बन्ध
व्याख्या
के मोहताज नहीं होते ,
मुकद्दर
कुछ नहीं
बिगाड़ पाता उनका ,
और वो
अव्याख्यित
रिश्ते बन जाते है
जीवन का
सबसे बड़ा
सच,
मै ,तुम की
परिधि
से परे........


मंगलवार, 1 मई 2012

रिश्ता

डरती हूँ पाने से,
क्योकि
खोना भी
जुड जाता है साथ में,
जब तक
मै तुम्हे पाऊँगी नहीं,
कम से कम
खोने का भय
तो नहीं रहेगा.
ऐसा ही
रिश्ता
अच्छा है हमारा,
खोने पाने2 के ,
समीकरण से दूर ...

अनुभूति

जाने कौन हो तुम .
लौकिक या पारलौकिक
समूचे अस्तित्व पर छाये हो तुम
अदृश्य हो ,अचिंतन हो .
.न होते हुए भी बस हो तुम,
जाने सूर्य का तेज हो या
चंद्रमा की शीतलता,
प्रभात का कलरव हो या
रात्रि की नीरवता.
मै अधूरी हूँ तुम बिन ,
तुम अस्तित्व की अनुभूति हो
तुम मेरे अन्धकार की दीप्ति हो .....

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

पिंजरा

स्वतंत्र हूँ  या कैद
अपनी परिधि के केंद्र में .
एक खूबसूरत सा घर 
जाने कैसे बदल जाता है
एक अदृश्य पिंजरे में,
नहीं जान पाई मैं.. 
हवा भी है और धूप भी
खाना भी है ,
और पीने को पानी भी ,
पर क्या ???
यही जीवन है,
नारी का तोते सा,
शायद फर्क है ..
तोते के साथ सहानुभूति है,
पिंजरे में कैद होने की,
रोज उसे चुग्गा और पानी मिल जाता है,
और वो तोता ही रहता है
कई रूप नहीं बदलता .
और मै पूजित , मंडित दैवीय स्वरूप
 माँ ,बहन ,बेटी ,पत्नी रिश्ता कोई भी हो ..
कैदी ही रह जाती हूँ .......
वो दिख रहा है कैद में
और मै कैद हूँ उस अदृश्य पिंजरे में ....
जिसकी हर दीवार 
किसी न किसी कुंठा से निर्मित है ....
कुंठाएं मिल कर
निर्माण करती है अदृश्य पिंजरे का
जी भी लूँ तोते सा जीवन
कम से कम पिंजरा दृश्य तो हो ....

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

.कल्पनाओं के शहर में ...

जाना है मुझे यथार्थ की दुनिया से दूर ,
कल्पनाओं के शहर में ...
जो रचा है मैंने जहाँ तुम रहते हो ,
उस कमरे में जिसमे दरवाजा नहीं है,
और मै चुपके से प्रवेश करती हूँ तब
तुम पढते पढते सो चुकते हो .....
किताब को सीने से लगाए और चश्मे को नाक पर चढाए बेखबर मेरे आने से ..
मै समेटते हुए कमरे का बिखरापन ....खुद में संवरती जाती हूँ
सीने से किताब को जुदा करती हूँ ,
जिसमे तुम्हारा दिल धडकता हुआ महसूस होता है मुझे ..
चश्मा हटा के खुश हो लेती हूँ कि अब कोई नहीं मेरे तुम्हारे नजरों के मध्य
और पा लेती हूँ सारे पारलौकिक सुख ...कल्पनाओं के शहर में ...

पिपासा

जोड़ दिया क्यों आग का रिश्ता पानी से ,
परस्पर विरोधी ...
एक अविकल पिपासा
आग तो बस चाहती है घृत ..चरम तक पहुचने के लिए .....

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

मानव

ना बची संवेदना ,
न ही कार्य रत तंत्रिका तंत्र ..
रह गया मानव एक जीवित यंत्र ....

रविवार, 22 मई 2011

कल रात "रात" खूब रोई मेरे साथ साथ,

Hidden moon by Flamelillyfoxकल रात "रात" खूब रोई मेरे साथ-साथ,
मेरे आंसुओं को पनाह दी मेरे तकिये ने,
रात के आंसू फैले है ओस बन कर,
चाँद के ना होने का अफ़सोस बन कर,
मै तो रोई कुछ अधूरी ख्वाहिशें ले कर,
और रात रोई चाँद से मिलने की तड़प ले कर,
जैसे तुम उलझे रहते हो किन्ही और ही ख्यालों में,
चाँद भी चुप गया है\ बादलों में,
बस मै हूँ और रात है,
...light tree moon...[FP] by Geoff...तड़प और ख्वाहिशों का साथ है,
क्यों अँधेरों की तड़प में उजालों की ख्वाहिश है,
क्यों सवालों की तड़प में जवाबों की  ख्वाहिश है,
"रात" फिर रात भर रोती रही,
मै भी "रात" के आंसुओं में अपनी बेबसी भिगोती रही.............



                                                                                       
                                                                    हेमा अवस्थी



सोमवार, 7 मार्च 2011

ख्वाहिशें

कभी कभी जीवन बड़ा विचित्र रंग दिखाता है.
हम सबके साथ हो कर भी निपट अकेले होते है.
जो है उसकी खुशी नहीं पर जो नहीं है उसका दुःख जरुर होता है.....
ऐसा क्यों होता है......

कभी बीती सी बातें हैं,
कभी रीती सी रातें हैं,
कभी पलकों पर ख्वाब हैं,
तो कभी बोझल सी आँखे हैं,
कभी इंतजार है तुम्हारा,
तो कभी तरसी निगाहे हैं,
हसरत है के एक बार ख्वाहिश
पूरी कर जाऊं मैं,
पर जो पूरी हो जाएँ वो
झूठी ख्वाहिशे हैं,
क्यों उदास कर जाती है
बीते पल बीती बातें,
क्यों मेरी होकर भी
परायी धड़कने है,
कैसे बताऊँ क्यों
घायल है दिल मेरा,
तीर की तरह दिल में पैवस्त
तुम्हारी चितवने हैं.......

प्रतिबिम्ब....


बरसों पुराने अपने लिखने के शौक को आज फिर जीवंत कर रही हूँ,
बीस वर्षों के बाद पुनः लेखनी उठाने की हिम्मत की है,
आप सभी ज्ञानी लोगों से सहयोग और दिशानिर्देश चाहूंगी...............  






जाने क्यों प्रतिबिम्ब डरा रहा है मुझको
बस तेरी जुदाई का मंजर नजर आ रहा है मुझको.
आईने से तो खौफ पहले ही था मुझको
तेरी आँखों में मेरा ही अक्स धुंधला नजर आ रहा है मुझको......