शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

सपनें


हाशिए पर रखी गई
हिम्मत और हताशा ,
पल पल गुजरता वक्त
सलीब और सैलाबों से लबरेज़ ,
पथरीलें रास्तों की चुभन
में रिसते घावों को समेट ,
आँखों को नम करते
अश्कों की जमीं पर ,
रोज रात बो देती है एक सपना,
जाने कहाँ से लाती है वो जिजीविषा, जिस्म पर पड़े नीले निशान
उसे नहीं बैठने देते है चुप ,
वो हँसती है ठठा के
उस दिन के लिए ,
जिस दिन लहलहाएँगे
उसके बोए सपने ..

हाँ ..तुम्हे डरना ही होगा अब ...