शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

ऊब

बारहा तारी होती है मुझपे
सब मुसल्सल होने की ऊब,
यकायक जी उठती है ऊब
जब थोड़ा सा मर जाती हूँ मैं ,
अंतस में पसरी
घर , किताबों , तुमसे होकर
फोन , लैपटाप ,
टी.वी से गुजर कर
नमी बन फैल
जाती है अंदर..
तवील रातों की नम ऊब
गुनगुनी धूप की प्यास जैसी
बढ़ती रहती है ,
एक बार फिर से
मेरे जी उठने के इंतजार में ....