बुधवार, 8 अगस्त 2012

व्याख्या


कुछ साथ
आदत
बन जाते है,
और बदल देते है
रास्ते ..
बन कर ख्वाब
बिछ जाते है ,
आँखों की नमी में,
और दे जाते है
एक सुनहरी दुनियां,
जहाँ सम्बन्ध
व्याख्या
के मोहताज नहीं होते ,
मुकद्दर
कुछ नहीं
बिगाड़ पाता उनका ,
और वो
अव्याख्यित
रिश्ते बन जाते है
जीवन का
सबसे बड़ा
सच,
मै ,तुम की
परिधि
से परे........


मंगलवार, 1 मई 2012

रिश्ता

डरती हूँ पाने से,
क्योकि
खोना भी
जुड जाता है साथ में,
जब तक
मै तुम्हे पाऊँगी नहीं,
कम से कम
खोने का भय
तो नहीं रहेगा.
ऐसा ही
रिश्ता
अच्छा है हमारा,
खोने पाने2 के ,
समीकरण से दूर ...

अनुभूति

जाने कौन हो तुम .
लौकिक या पारलौकिक
समूचे अस्तित्व पर छाये हो तुम
अदृश्य हो ,अचिंतन हो .
.न होते हुए भी बस हो तुम,
जाने सूर्य का तेज हो या
चंद्रमा की शीतलता,
प्रभात का कलरव हो या
रात्रि की नीरवता.
मै अधूरी हूँ तुम बिन ,
तुम अस्तित्व की अनुभूति हो
तुम मेरे अन्धकार की दीप्ति हो .....

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

पिंजरा

स्वतंत्र हूँ  या कैद
अपनी परिधि के केंद्र में .
एक खूबसूरत सा घर 
जाने कैसे बदल जाता है
एक अदृश्य पिंजरे में,
नहीं जान पाई मैं.. 
हवा भी है और धूप भी
खाना भी है ,
और पीने को पानी भी ,
पर क्या ???
यही जीवन है,
नारी का तोते सा,
शायद फर्क है ..
तोते के साथ सहानुभूति है,
पिंजरे में कैद होने की,
रोज उसे चुग्गा और पानी मिल जाता है,
और वो तोता ही रहता है
कई रूप नहीं बदलता .
और मै पूजित , मंडित दैवीय स्वरूप
 माँ ,बहन ,बेटी ,पत्नी रिश्ता कोई भी हो ..
कैदी ही रह जाती हूँ .......
वो दिख रहा है कैद में
और मै कैद हूँ उस अदृश्य पिंजरे में ....
जिसकी हर दीवार 
किसी न किसी कुंठा से निर्मित है ....
कुंठाएं मिल कर
निर्माण करती है अदृश्य पिंजरे का
जी भी लूँ तोते सा जीवन
कम से कम पिंजरा दृश्य तो हो ....

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

.कल्पनाओं के शहर में ...

जाना है मुझे यथार्थ की दुनिया से दूर ,
कल्पनाओं के शहर में ...
जो रचा है मैंने जहाँ तुम रहते हो ,
उस कमरे में जिसमे दरवाजा नहीं है,
और मै चुपके से प्रवेश करती हूँ तब
तुम पढते पढते सो चुकते हो .....
किताब को सीने से लगाए और चश्मे को नाक पर चढाए बेखबर मेरे आने से ..
मै समेटते हुए कमरे का बिखरापन ....खुद में संवरती जाती हूँ
सीने से किताब को जुदा करती हूँ ,
जिसमे तुम्हारा दिल धडकता हुआ महसूस होता है मुझे ..
चश्मा हटा के खुश हो लेती हूँ कि अब कोई नहीं मेरे तुम्हारे नजरों के मध्य
और पा लेती हूँ सारे पारलौकिक सुख ...कल्पनाओं के शहर में ...

पिपासा

जोड़ दिया क्यों आग का रिश्ता पानी से ,
परस्पर विरोधी ...
एक अविकल पिपासा
आग तो बस चाहती है घृत ..चरम तक पहुचने के लिए .....

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

मानव

ना बची संवेदना ,
न ही कार्य रत तंत्रिका तंत्र ..
रह गया मानव एक जीवित यंत्र ....