बारहा तारी होती है मुझपे
सब मुसल्सल होने की ऊब,
यकायक जी उठती है ऊब
जब थोड़ा सा मर जाती हूँ मैं ,
अंतस में पसरी
घर , किताबों , तुमसे होकर
फोन , लैपटाप ,
टी.वी से गुजर कर
नमी बन फैल
जाती है अंदर..
तवील रातों की नम ऊब
गुनगुनी धूप की प्यास जैसी
बढ़ती रहती है ,
एक बार फिर से
मेरे जी उठने के इंतजार में ....
कुछ भाव जो व्यक्त नहीं कर पाई, कुछ दर्द जो बाँट नहीं पाई,अब लेखनी से वो सारे पल जीना चाहती हूँ,जो इस जीवन की भागदौड में कहीं बहुत पीछे रह गए किन्तु टीसते रहे.......
शुक्रवार, 28 नवंबर 2014
ऊब
मंगलवार, 4 नवंबर 2014
अबोध
अबोधता वरदान है
न जानना जानने से बेहतर है
जानना छीन लेता है सहजता
और देता है क्षमता
आँखों को बुद्धि को
दिखने लगते हैं कपड़ों
में लिपटे नग्न लोग ...
दिखती है मुस्कान के
पीछे की विद्रूपता
दिखती है सहयोग
के पीछे साजिश ...
मैं अबोध ही भली...
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