गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

पिंजरा

स्वतंत्र हूँ  या कैद
अपनी परिधि के केंद्र में .
एक खूबसूरत सा घर 
जाने कैसे बदल जाता है
एक अदृश्य पिंजरे में,
नहीं जान पाई मैं.. 
हवा भी है और धूप भी
खाना भी है ,
और पीने को पानी भी ,
पर क्या ???
यही जीवन है,
नारी का तोते सा,
शायद फर्क है ..
तोते के साथ सहानुभूति है,
पिंजरे में कैद होने की,
रोज उसे चुग्गा और पानी मिल जाता है,
और वो तोता ही रहता है
कई रूप नहीं बदलता .
और मै पूजित , मंडित दैवीय स्वरूप
 माँ ,बहन ,बेटी ,पत्नी रिश्ता कोई भी हो ..
कैदी ही रह जाती हूँ .......
वो दिख रहा है कैद में
और मै कैद हूँ उस अदृश्य पिंजरे में ....
जिसकी हर दीवार 
किसी न किसी कुंठा से निर्मित है ....
कुंठाएं मिल कर
निर्माण करती है अदृश्य पिंजरे का
जी भी लूँ तोते सा जीवन
कम से कम पिंजरा दृश्य तो हो ....