गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

.कल्पनाओं के शहर में ...

जाना है मुझे यथार्थ की दुनिया से दूर ,
कल्पनाओं के शहर में ...
जो रचा है मैंने जहाँ तुम रहते हो ,
उस कमरे में जिसमे दरवाजा नहीं है,
और मै चुपके से प्रवेश करती हूँ तब
तुम पढते पढते सो चुकते हो .....
किताब को सीने से लगाए और चश्मे को नाक पर चढाए बेखबर मेरे आने से ..
मै समेटते हुए कमरे का बिखरापन ....खुद में संवरती जाती हूँ
सीने से किताब को जुदा करती हूँ ,
जिसमे तुम्हारा दिल धडकता हुआ महसूस होता है मुझे ..
चश्मा हटा के खुश हो लेती हूँ कि अब कोई नहीं मेरे तुम्हारे नजरों के मध्य
और पा लेती हूँ सारे पारलौकिक सुख ...कल्पनाओं के शहर में ...

4 टिप्‍पणियां:

  1. भाभी जी.. बहुत ही सुंदर कविता है.. सुंदर भावाभिव्यक्ति...

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  2. वाह मै अभीभूत हूँ ये रचना पढ़ कर.....और एक एक शब्द में स्वयं को अनुभव भी किया.......बहुत ही ह्रदय स्पर्शी रचना।

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  3. आभार आपका जो आपने मेरे शब्दों के साथ स्वयं को महसूस किया ........

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